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इ꣡न्द्रा꣢ग्नी꣣ अ꣡प꣢स꣣स्प꣢꣯र्युप꣣ प्र꣡ य꣢न्ति धी꣣त꣡यः꣢ । ऋ꣣त꣡स्य꣢ प꣣थ्या꣢३ अ꣡नु꣢ ॥१५७७॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

इन्द्राग्नी अपसस्पर्युप प्र यन्ति धीतयः । ऋतस्य पथ्या३ अनु ॥१५७७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । अ꣡प꣢꣯सः । प꣡रि꣢꣯ । उ꣡प꣢꣯ । प्र । य꣣न्ति । धीत꣡यः꣢ । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । प꣣थ्याः꣢ । अ꣡नु꣢꣯ ॥१५७७॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1577 | (कौथोम) 7 » 3 » 2 » 3 | (रानायाणीय) 16 » 1 » 2 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

आगे फिर जीवात्मा और परमात्मा का ही विषय उपदिष्ट है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्द्राग्नी) जीवात्मन् और परमात्मन् ! (धीतयः) ध्यानकर्ता लोग (ऋतस्य) सत्य के (पथ्याः) मार्गों का (अनु) अनुसरण करते हुए (अपसः परि) धर्म कर्मों के पार पहुँच कर, तुम दोनों को (उप प्र यन्ति) प्राप्त कर लेते हैं ॥३॥

भावार्थभाषाः -

जीवन में सत्य मार्ग का अनुसरण और परमेश्वर की प्राप्ति, यह मनुष्य का लक्ष्य है ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरपि जीवात्मपरमात्मविषय उपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्द्राग्नी) जीवात्मपरमात्मानौ ! (धीतयः) ध्यानकर्तारो जनाः (ऋतस्य) सत्यस्य (पथ्याः) मार्गान् (अनु) अनुसरन्तः (अपसः परि) धर्मकर्मणां पारं प्राप्य, युवाम् (उप प्र यन्ति) उप प्राप्नुवन्ति ॥३॥२

भावार्थभाषाः -

जीवने सत्यमार्गानुगमनं परमेश्वरप्राप्तिश्चेति मनुष्यस्य लक्ष्यम् ॥३॥